“यह हमेशा असंभव सा लगता है, जब तक कि पूरा न हो जाये!” – नेल्सन मंडेला
– चित्रा पॉल, एडवोकेट, “टॉकिंग फिंगर्स” की सह-संपादक, एस.आर.वी. लीडर और तरुण की मां
और तरुण पॉल मैथ्यू, छात्र, लेखक, विचारक, सेल्फ-एडवोकेट, और नई पुस्तक “टॉकिंग फिंगर्स” के सह-लेखक और चित्रा के बेटे।
संपादक का नोट: पद्मा ज्योति और चित्रा पॉल ने वर्ष 2022 में, भारत और आसपास के देशों के गैर-बोलने वाले ऑटिस्टिक लोगों की आवाज़ को उजागर करने वाली एक बेमिसाल पुस्तक का सह-संपादन किया। ‘टॉकिंग फिंगर्स’ में शामिल लेखकों में से एक चित्रा के पुत्र श्री तरूण मैथ्यू थे। इन दो दिलचस्प और प्रेरक लोगों ने इस लेख में योगदान दिया है।
माता-पिता बनना एक भावनात्मक यात्रा है जिसमें व्यक्ति धीरे-धीरे बढ़ता और विकसित होता है। इस यात्रा की शुरुआत में और काफी लंबे समय तक आपके बच्चे की पहचान आपके साथ जोड़ कर देखी जाती है। फिर धीरे-धीरे भूमिका में बदलाव आता है। एक माता-पिता के रूप में आप उस दिन का इंतजार करते हैं जब आपको अपने बच्चे के माता-पिता के रूप में पहचाना जाएगा, न कि इसके विपरीत।
जब आप किसी विकलांगता युक्त बच्चे के माता-पिता होते हैं, तो अकसर आपके बच्चे और आपकी दोनों की पहचान जटिल रूप से आपस में जुड़ी होती है, जिसमें बच्चे की पहचान आपके साथ उसके रिश्ते तक ही सीमित होती है। समाज आपको सहानुभूति की दृष्टि से देखता है और विकलांगता युक्त व्यक्ति के प्रति संरक्षणात्मक रवैया प्रदर्शित करता है।
हालाँकि, कई विकलांगता युक्त व्यक्तियों ने इस प्रकार की मनोवृति के जंजीरों को तोड़ दिया है और अपने माता-पिता से स्वतंत्र अपनी शक्तिशाली पहचान बनाई है। यहां उनकी भूमिकाएं न केवल पलट जाती हैं, बल्कि उससे आगे भी बढ़ जाती है- एक व्यक्तिगत योगदान करने वाले स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में।
हमारे लिए एक गैर-बोलने वाले ऑटिस्टिक व्यक्ति का माता-पिता होना हमेशा सबसे सकारात्मक अनुभव नहीं रहा है। अपने बेटे, तरुण के साथ इस यात्रा के हर मोड़ पर, हमें रवैये और व्यवहार संबंधी दीवारों को तोड़ने के लिए खड़ा होना पड़ा है। कुछ मामलों में हम सफल हुए हैं, जबकि कुछ में हम ऐसा नहीं कर पाए। इन वर्षों में, धीरे-धीरे भूमिका में बदलाव आ रहा है, जहां हमें एक युवा ऑटिस्टिक कार्यकर्ता के रूप में उसके योगदान के साथ-साथ उसकी कई अन्य विशेषताओं और क्षमताओं के आधार पर तरूण के माता-पिता के रूप में पहचाना जाता है।
यह लेखन वर्ष 2023 में हुई ऐसी दो घटनाओं के हमारे अनुभवों को साझा करने का एक प्रयास है। मैं बेहद गर्व के साथ साझा करती हूं कि यह लेख मेरे बेटे, तरुण के साथ इन अनुभवों को सह-लेखन करने का एक अभ्यास है। मेरी टिप्पणियाँ एक माता-पिता के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती हैं जबकि उसके अपने जीवन के अनुभव यहाँ साझा की गई हैं।
पिछले कुछ वर्षों से तरुण को भारत में गैर-बोलने वाले ऑटिस्टिक समुदाय के एडवोकेट के रूप में पहचाना गया है। ऐसा ही एक आयोजन नई दिल्ली में नेशनल ट्रस्ट द्वारा आयोजित ऑटिज्म कॉन्क्लेव था। 30 मई को आयोजित इस एक दिवसीय कार्यक्रम के हिस्से के रूप में एक पैनल चर्चा में वक्ता के रूप में भाग लेने के लिए तरुण को पर्पल एम्बेसडर के रूप में आमंत्रित किया गया था। जब उसे.यह निमंत्रण मिला तो उसके माता-पिता के रूप में हम अभिभूत हो गए, और हमें केवल उसे आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए उसके साथ जाना था। एक खास बात यह थी कि हर कदम पर निर्णय लेने वाला व्यक्ति वह खुद था और हमारी भूमिका गौण थी। इसके लिए पहले से तैयारी करने को लेकर वह बहुत मेहनती और उद्देश्यपूर्ण था। एक और बात जिसने हमें वास्तव में गौरवान्वित किया वह यह थी कि वह ‘टॉकिंग फिंगर्स’ पुस्तक के अपने सह-लेखकों के दृष्टिकोण को शामिल करने के बारे में बहुत स्पष्ट था। जिस पैनल चर्चा में उन्हें भाग लेना था उसका विषय था ‘माता-पिता के लिए ऑटिज़्म की भूलभुलैया को तोड़ना’। उसने एक ही दिन में अपनी प्रस्तुति तैयार कर हमें यह स्पष्ट कर दिया कि यह अवसर उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण था। उसकी प्रस्तुति में शामिल विषय इन बातों से संबंधित थे, कि वह लोगों को ऑटिज्म और ऑटिस्टिक लोगों के बारे में क्या समझाना चाहता था, सामान्य लोगों से उसकी अपेक्षाएं क्या थीं और माता-पिता, पेशेवरों और व्यापक पैमाने पर समाज के लिए उसका संदेश क्या था। हालाँकि अपने विचारों को टाइप करना उसके लिए एक बेहद थका देने वाली प्रक्रिया थी, लेकिन उसने अपनी प्रस्तुति को पूरा करने के लिए कई सीमाओं को पार किया। हालाँकि पैनल चर्चा उसके दोपहर के भोजन के समय के आसपास निर्धारित था, फिर भी वह अपने संवेदी अधिभार और भूख के कारण मंच से उतरने से पहले दर्शकों को अपना संदेश लाइव टाइप करके हमें फिर से आश्चर्यचकित कर दिया। मैं उसका संदेश यहां शब्दश: साझा कर रही हूं – ”धीरे-धीरे बदलते संचार सम्बन्ध हम ऑटिस्टिक लोगों को आजादी देते हैं। संचार का मतलब सिर्फ बोलना ही नहीं है।”
हालाँकि, उसे अठारह वर्ष का होने में दस दिन बाकी थे, फिर भी तरुण एक सेल्फ-एडवोकेट की भूमिका में फिट होकर, अपने माता-पिता से स्वतंत्र अपनी पहचान स्थापित करने में कामयाब रहा।
हालाँकि, उसे अठारह वर्ष का होने में दस दिन बाकी थे, फिर भी तरुण एक सेल्फ-एडवोकेट की भूमिका में फिट होकर, अपने माता-पिता से स्वतंत्र अपनी पहचान स्थापित करने में कामयाब रहा।
नवंबर 2023 में, तरुण को एक अन्य पैनल चर्चा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था जो भारत समावेशन शिखर सम्मेलन का हिस्सा था। इस चर्चा का विषय समावेशी साहित्य और विकलांगता के बारे में कथा-वर्णन को बदलने में इसकी भूमिका के बारे था। यह एक बहुत बड़ा मंच था और इसमें भाग लेने के अवसर ने माता-पिता के रूप में हमारे दिलों को भी गर्व से भर दिया। एक बार फिर वह बड़े उत्साह के साथ मंच पर अपनी सही जगह स्थापित करने में सफल हुआ। एक बार फिर उसने दिखाया कि जिस तरीके से उसने इस कार्यक्रम के लिए अपने प्रत्युत्तर तैयार किए, उसने अपने गैर-बोलने वाले ऑटिस्टिक समूह के लिए एक एडवोकेट होने की अपनी भूमिका को कितनी गंभीरता से लिया। हालाँकि, असली आकर्षण पूरे कार्यक्रम के दौरान उसका शांत और संयमित व्यवहार था और साथ ही मंच पर दर्शकों के सवालों का जवाब देने का तरीका भी था। उसके माता-पिता के रूप में हमें बहुत गर्व महसूस हुआ कि वह एक सच्चे मानवतावादी के रूप में विकसित हो रहा है जब उसने दर्शकों के एक प्रश्न का उत्तर दिया जैसा कि नीचे साझा किया गया है।
“हमें दर्द क्यों महसूस होता है?”
तरूण का जवाब था – “क्योंकि हम इंसान हैं।”
कुछ साल पहले तक, हम ही थे जो तरुण को उसकी राह दिखाने में मदद करते थे। लेकिन अब भूमिकाएँ पूरी तरह से पलट गई हैं, और वह अपना रास्ता खुद तय कर रहा है और जब भी आवश्यकता होती है तभी समर्थन के लिए वह हम पर निर्भर रहता है; अंतर यह है कि वह स्वंय अपने जीवन में निर्णय लेने वाला है और अपनी जीवन यात्रा का चालक है।
तरूण ने नेशनल ट्रस्ट ऑटिज्म कॉन्क्लेव में पैनलिस्ट के रूप में अपना अनुभव साझा किया:
“बस मुझे व्यापक रूप से लोगों से जुड़ने का मौका मिला, एक बड़ा श्रोता वर्ग, उम्मीद है कि पहुंच भी बड़ी होगी। मैं इस बात से अवगत हुआ कि कैसे जीवन बहुत कम अवसर प्रदान करता है, आपको बार-बार उन छोटे अवसरों का सम्मान करने और उन्हें महत्व देने के लिए मजबूर करता है, क्योंकि केवल वे ही लंबे समय के लिए प्रभावी बदलाव का द्वार बनाते हैं। मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि मुझे पैनल चर्चा में शामिल किया गया क्योंकि किसी गैर-बोलने वाले ऑटिस्टिक व्यक्ति को अपने विचार साझा करने के लिए भागीदार के रूप में आमंत्रित करना वास्तव में दुर्लभ है। यह कि मैं अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व कर सका और ‘टॉकिंग फिंगर्स’ पुस्तक जिसमें मैं एक सह-लेखक था, उसकी प्रतियां महत्वपूर्ण अधिकारियों के साथ साझा कर सका, इससे भी मुझे बहुत खुशी हुई। बोलने के लिए मेरा प्रवाह अन्य वक्ताओं को सुनने से आया, जिनमें से कुछ के पास ऑटिज़्म के बारे में बहुत पुराने विचार थे। एक बात जिसने वास्तव में मुझे बहुत परेशान किया वह यह थी कि ऑटिस्टिक लोगों की उत्तेजना प्रकट करने के व्यवहारों (stimming) पर पूरी तरह से अंकुश लगाने की आवश्यकता है, क्योंकि यह सीखने के रास्ते में बाधा बनती है। मैंने अपना प्रत्युत्तर टाइप किया – “लोग हमें सुनते हैं क्योंकि अब वे हमें अनसुना नहीं कर सकते क्योंकि हमारी आवाजें लगातार ऊंची होती जा रही हैं। ऑटिस्टिक लोगों के लिए जीने का मतलब है बार-बार उत्तेजित होना और उसे दुहराये जाने वाले व्यवहारों से प्रकट करना (stimming), यह हमारा मानवाधिकार है।” ऑटिस्टिक और गैर-ऑटिस्टिक दोनों प्रकार के मेरे समर्थकों वाले समुदाय की उपस्थिति में अपने विचारों को साझा करना और न्यूरोटिपिकल विशेषज्ञों द्वारा सुना जाना बहुत अच्छा लगा।
मैं अपने साथी लेखकों और गैर-बोलने वाले ऑटिस्टिक लोगों, तरुण वर्मा और वंशिता से मिलने के लिए भी उत्साहित था। रक्षिता, मेरि और निधि से भी मिलने और तस्वीरें खिंचाने का मौका मिला, जिन्होंने पूरे समय मेरा भरपूर समर्थन किया। इसमें भाग लेने वाले अन्य ऑटिस्टिक लोगों से भी मुलाकात हो सकी। कुछ चीजों के कारण निश्चित रूप से मुझे संघर्ष करना पड़ा जैसे नियत समय सारणी का सही रीति से पालन नहीं किया जाना, मेरे लिए संवेदनात्मक रूप से बहुत परेशान करने वाला था लेकिन ब्रेक ले सकने की आजादी होने से बहुत मदद मिली। इस कॉन्क्लेव का हिस्सा बनकर मुझे बहुत अच्छा लगा, और वहां बहुत कुछ सीखा।”
भारत समावेशन शिखर सम्मेलन 2023 में पैनलिस्ट के रूप में अपने अनुभव पर तरुण:
मेरे लिए लेखिका अनिता नायर के साथ एक मंच साझा करने के अनुभव से बेहतर और कुछ भी नहीं था। चर्चा का विषय समावेशी साहित्य के माध्यम से विकलांगता कथा को बदलना था। यह भारत में ऑटिस्टिक लोगों को किस तरह देखा जाता है, उसे बदलने के लिए यह एक आदर्श चर्चा बिंदु बनता है। वहाँ बहुत सारी जानकारी प्राप्त हुई फिर भी संवेदी दृष्टि से यह अत्यधिक थका देने वाला अनुभव था। मेरे पिछले अनुभवों ने मुझे बहुत सारी अंतर्दृष्टियाँ दीं जिससे मुझे इस बार और अधिक योगदान करने में मदद मिली। मैं विशेष रूप से खुश था कि मैं श्रोताओं के सवालों का तुरंत और सटीक जवाब दे सका। मेरे लिए एक मुख्य आकर्षण भारत समावेशन शिखर सम्मेलन 2023 की पेंटिंग पर मेरा नाम हस्ताक्षर कर पाना भी था।
मैं अपने विचार साझा कर रहा हूं जो मैंने पैनल चर्चा के दौरान प्रस्तुत किए थे कि क्या बच्चों की किताबों में विकलांगता युक्त लोगों को शामिल करना, समाज को बदलने में मदद करेंगे:
“समाज में परिवर्तन बच्चों से शुरू होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह कायम रहे। बड़े पेड़ों का विकास और जंगल का फलना-फूलना तभी संभव है जब जमीन पर पर्याप्त काम किया गया हो। बच्चों की किताबों में विकलांगता युक्त लोगों को शामिल किया जाना, अगर ऐसा होता है तो यह बदलाव के लिए ज़मीन तैयार करती है। किताबें नजरिया बनाने और आकार देने में मदद करती हैं, यह सभी जानते हैं।”