समर्पण हमेशा नौकरी करना चाहता था। वह काम पर जाने के लिए सफर करना चाहता था और अपने उम्र के किसी भी अन्य युवा व्यक्ति की तरह ही काम करना और वेतन पाना चाहता था। हालांकि, एक विशेष स्कूल में अध्ययन करने के कारण, उसे लगातार संरक्षित किया गया था, और “कृत्रिम स्थितियों” में कौशल सिखाया गया था, इसलिए उसके लिए, वास्तविक कार्य-स्थितियों में काम कर पाने के विषय सही मायनों में सोचा नहीं गया था। और फिर एस.आर.वी. से परिचय हुआ। समर्पण के साथ मिलकर एक व्यक्तिगत भविष्य योजना विकसित की गयी, जिसमें उसने एक “वास्तविक नौकरी” पर काम करने की इच्छा व्यक्त की। उसी समय, जो संस्था, समर्पण की सहायता कर रही थी- आशीष सेन्टर, वह खुद एस.आर.वी. कार्यान्वयन के विषय खोज-पड़ताल कर रही थी, और शिक्षार्थियों को वास्तविक कौशल विकसित कराने में मदद करने से संबंधित कौशल-शिक्षण के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में सीखा था।
जल्द ही, आशीष सेन्टर को एक कंपनी ने संपर्क किया, जिन्होंने बताया कि वे ई-कॉमर्स संबंधी कार्य के लिए विकलांगता युक्त व्यक्तियों को नियुक्त करना चाहते हैं। वे आशीष सेन्टर को अपने भवन में ही एक विशेष क्षेत्र को विकसित करने में मार्गदर्शन करने के लिए काफी उत्साहित थे जो दिखने में बिल्कुल उनके सामानों को संभालने वाले कमरे की तरह दिखाई दे ताकि समर्पण और दूसरे वहीं प्रशिक्षित किए जा सकें और जब वे तैयार हो जाएं तब वे असली कार्यस्थलों और असली नौकरी में प्रवेश पा सकें। सुनने में बहुत अच्छा लगता है, है ना ? सिवाय इसके कि एस.आर.वी. ने हमें अलग तरह से सिखाया था, और हमने धीरे-धीरे इस बिंदु पर बातचीत की और पूछा कि किस प्रकार से समर्पण और दूसरे आवेदन करने और प्रशिक्षण लेने के इच्छुक व्यक्ति वास्तविक कार्यस्थल में ही काम सीख सकें। सो समर्पण अपने नए काम के स्थान पर गया, और उसने अपने नौकरी के लिए आवश्यक नए हुनरों को काम करते हुए ही सीखा।
उसके पर्यवेक्षक बहुत सहायक थे और समर्पण ने अपने सह-कर्मचारियों और पर्यवेक्षकों से अपनी नौकरी के बारे में सीखा। एक सेटिंग से दूसरे सेटिंग में आवश्यक कौशल हस्तांतरण की आवश्यकता नहीं हुई और उसने एक कर्मचारी की मूल्यवान भूमिका में उसी तरह से कदम रखा जैसे कोई भी दूसरा व्यक्ति अपनी नई नौकरी में रखता है। अब आशीष सेटर ने ऑटिज़्म युक्त कई अन्य लोगों को इस कंपनी के साथ काम करने में सहायता की है, जिनमें से दो को पहले से ही पर्यवेक्षक के पद पर पदोन्नत किया गया है। “शिक्षण की प्रक्रिया में सत्याभास” के सिद्धांत पर पूर्ण भरोसा रखने वाले के रूप में, आशीष अब कृत्रिम परिस्थितियों के सृजन करने की अवस्था से काफी आगे निकल चुका है। समाज में रहने के लिए आवश्यक हुनरों को वे समाज में ही सीख रहे हैं जैसे कि वास्तविक सार्वजनिक परिवहन के माध्यमों का उपयोग करना तथा स्थानीय रेस्तरां में भोजन करना इत्यादि।
विकलांगता युक्त लोगों के साथ काम करने वाले एक पेशेवर के रूप में मैं अक्सर उन स्थितियों के संपर्क में आता हूं जहां स्कूल विकलांगता युक्त लोगों को कौशल सिखाने के लिए ’कृत्रिम’ स्थितियां पैदा करते हैं। जैसे कि हम स्कूल में ही दिखावटी दुकानें और कृत्रिम कार्यस्थल देख सकते हैं और यहाँ तक कि स्कूल में ही एक कृत्रिम रेस्तरां का भी दिखावा कर सकते हैं। सामाजिक भूमिका मूल्यवर्द्धन एक विकासात्मक दृष्टिकोण के साथ कार्य-कुशलता बढ़ाने के विचार पर पहुंचता है, और उसका एक पहलू यह है कि लोग सबसे अच्छा तब सीखते हैं जब उन्हें उसी वातावरण में सिखाया जाता है जहां उनके व्यवहार में लाए जाने की उम्मीद होती है। वास्तव में, जब कोई “नकली या कृत्रिम” वातावरण में सीखता है, तो सफलतापूर्वक उसे पूरा कर पाने की संभावना सामान्य तौर पर कम होती है। डॉ. वोल्फेंसबर्गर ने एक शब्दावली “पेडागोजिक वेरिसिमिलिट्यूड” को गढ़ा, जिसका अर्थ है कि शिक्षण के सफल होने की संभावना सबसे अधिक तब है, जब कार्य वास्तविक होते हैं, नकली या “कृत्रिम” नहीं, और जब उन्हें प्राकृतिक, वास्तविक वातावरण में पढ़ाया जाता है। साधारण शब्दों में, इसका मतलब है कि एक ऐसे वातावरण में कौशल सिखाना, जो यथासंभव प्राकृतिक स्थिति के करीब है, और जिसमें वास्तविक सामग्रियों का उपयोग किया जाए, न कि प्रतिनिधित्व करने वाले सामग्रियों का।
समर्पण के लिए, साथ ही एस.आर.वी. का उपयोग करने की कोशिश में लगे कई हितधारकों के लिए, यह सही विचार का, सही समय से समय पर संबंध स्थापित होना था … और साथ ही में … सही सुनने वाले लोगों के साथ भी।